आँखों में आँसू बो जाते
सुई चुभाते से दिन।
इच्छाएँ तो ऐसे उड़तीं
जैसे उड़े बुरादा
बुरे समय के घर जा बैठा
सपना सीधा सादा
दंश सौतिया झेल रहे जो
थे मदमाते से दिन।
रिश्ते नाते हुए कसैले
मौन घिरा अधरों पर
बिखर गए मीठे संबोधन
सूनापन पहरों पर
मन को बस फुसलाते रहते
झूठी बातों से दिन।
नकली मुस्कानों की लहरें
मन में हूक उठातीं
पाखंडी मौसम के घर में
बढ़ चढ़ कर इतरातीं
अंदर से खाली पर बाहर
हमें हँसाते से दिन।
आधी उमर सिसकते बीती
पीड़ा की घाटी में
चुभन झेलते रहे सदा हम
रीती परिपाटी में
सुख तो केवल मृगतृष्णा है
दिखें सताते से दिन।